BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।

उत्तर -

गुण-निरूपण

१.

चक्षुर्मात्रग्राह्यो गुणो रूपम्। तच्च शुक्लनीलपीत रक्त हरित कपिश - चित्रभेदात् सप्तविधम्। पृथ्वीजलतेजोवृत्ति। तत्र पृथिव्यां सप्तविधम्। अभास्वर - शुक्लं जले। भास्वरशुक्लं तेजसि।

सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण श्री अन्नम्भट्ट की कृति 'तर्कसंग्रहः' के गुण निरूपण भाग से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग - इस अवतरण में रूप के लक्षण को विवेचित किया गया है।

व्याख्या - केवल चक्षुरिन्द्रिय से ग्रहण किये जाने वाला गुण 'रूप' है। वह शुक्ल (सफेद), नील (नीला काला), पीत (पीला), रक्त (लाल), हरित (हरा), कपिश (कृष्ण- पीत) और चित्र (चितकबरा) के भेद से सात तरह का होता है। वह रूप पृथ्वी जल तथा तेजस् द्रव्यों में रहता है। ये सब पृथिवी में रहते हैं। न चमकने वाला श्वेत रूप जल में और चमकीला श्वेत रूप तेजस् में रहता है।

विशेष - 'रूप' के उपर्युक्त लक्षण के साधुत्व की परीक्षा वांछनीय है। इसे अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोषों से शून्य होना चाहिए। लक्षण में 'चक्षु' पद देने से रसगन्धादि गुणों में इसी अतिव्याप्ति दोषों से शून्य होना चाहिए। एवं गुण पद देने से 'रूपत्व' जाति तथा ल्यणुक में इसकी अतिव्याप्ति नहीं हुई। ऐसा न करने पर लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित होता है। मूल में आये हुए 'कपिश' शब्द का अर्थ है कृष्णापीत। जैसे केश जटा में परिवर्तित होने पर कृष्णता के साथ पीतता से भी युक्त हो जाते हैं। इसी मिश्रित कृष्ण - पीत रूप को 'कपिश' कहा जाता है 'पिङ', 'पिङ्गल' तथा 'पिशङ्ग' इसके अन्य पर्याय हैं।

२.

रसनाग्राह्यो गुणो रसः। स च मधुराम्ललवणकटुकषायतिक्तभेदात् षड्विधः। पृथिवीजलमात्रवृत्तिः। तत्र पृथिव्यां षड्विधः। जले मधुर एव।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस गद्यांश में रस का विवेचन किया गया है।

विशेष - रसना इन्द्रिय से ग्रहण किया जाने वाला गुण रस है। मीठा खट्टा नमकीन कड़वा कसैला तथा तीत ( तीखा ) के भेद से यह छः प्रकार का होता है। यह रस केवल पृथिवी एवं जल द्रव्यों में रहता है। इनमें पृथिवी में छहों रस पाये जाते हैं किन्तु जल में केवल मधुर ही पाया जाता है।

३.

घाणग्राह्यो गुणो गन्धः। स द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च। पृथिवीमात्रवृत्तिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - इस अवतरण में 'गन्ध' का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - घ्राण से ग्रहण किया जाने वाला गुण 'गन्ध' है। वह दो प्रकार का होता है सुगन्ध और दुर्गन्ध। 'गन्ध' केवल पृथिवी द्रव्य में पाया जाता है।

विशेष - गन्धः पृथिवीमात्रवृत्ति:' इसलिए कहा गया क्योंकि अन्वय अर्थात् जहाँ-जहाँ गन्ध होगा वहाँ-वहाँ पृथ्वी का सम्बन्ध अवश्य होगा एवं व्यतिरेक अर्थात् जहाँ पर पृथ्वी का सम्बन्ध नहीं होगा वहाँ पर गन्ध भी नहीं होगा।

४.

त्वगिन्द्रियमात्रग्राह्यो गुणः स्पर्शः स च त्रिविधः, शीतोष्णानुष्णा- शीतभेदात्। पृथिव्यप्तेजोवायुवृत्तिः। तत्र शीतो जले उष्णस्तेजसि अनुष्णाशीतः पृथिवीवाखो।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में स्पर्श का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - त्वगिन्द्रिय मात्र से ग्रहण किया जाने वाला गुण 'स्पर्श' है। यह तीन प्रकार का होता है शीत उष्ण एवं अनुष्णाशीत अर्थात् न गर्म और न ठण्डा। इनमें शीत-स्पर्श जल का है उष्ण-स्पर्श तेजस् ( अग्नि सूर्य आदि) का तथा अनुष्णाशीत स्पर्श पृथिवी एवं वायु का।

विशेष - प्रथम पंक्ति में 'स्पर्श' का लक्षण दिया गया है। पूर्ववत् गुण पद का समावेश 'स्पर्शत्व' जाति में होने वाली इसकी अतिव्याप्ति की निवृत्ति या परिहार के लिये किया गया है। 'त्वगिन्द्रिय' का ग्रहण रूप रसादि में इसकी अतिव्याप्ति रोकने के लिए किया गया है क्योंकि इन्द्रिय ग्राह्य गुण तो रूप, रस, गन्ध सभी हैं किन्तु त्वगिन्द्रिय ग्राह्य गुण केवल 'स्पर्श' हैं।

५.

रूपादिचतुष्टयं पृथिव्यां पाकजमनित्यं च। अन्यत्रापाकजं नित्यमनित्यं च। नित्यगतं नित्यम् अनित्यगतमनित्यम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में 'पुरुष' का विवेचन किया गया है।

व्याख्या - रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पृथिवी में पाक से उद्भव एवं अनित्य होते हैं। पृथिवी से भिन्न जलादि आश्रयों में ये अपाकज होते हैं एवं नित्य और अनित्य दोनों ही प्रकार के होते हैं। नित्य परमाणु के रूप आदि नित्य हैं किन्तु अनित्य कार्य द्रव्यों में रहने वाले रूप आदि अनित्य हैं।

विशेष - पृथिवी के साथ उससे विजातीय द्रव्य तेजस् के संयोग को पाक कहते हैं। मिट्टी का कच्चा घड़ा भूरे रंग का तथा चिकना होता है। आवें आग से पक जाने पर वही लाल रंग का तथा स्पर्श में कुछ कर्कश हो जाता है।

६.

एकत्वादिव्यवहारसाधारणहेतुः संख्या। सा नवद्रव्यवृत्तिः एकत्वादि परार्धपर्यन्ता। एकत्वं नित्यमनित्यं च। नित्यगतं नित्यम् अनित्यगतमनित्यम्। द्वित्वादिकं तु सर्वतानित्यमेवा।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस अवतरण में संख्या का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - एक दो आदि व्यवहार के असाधारण हेतु भूत गुण को संख्या कहते हैं। वह पृथ्वी से मनस् पर्यन्त नवों द्रव्यों में रहती है तथा एक से लेकर परार्ध तक है। नित्य तथा अनित्य के भेद से एक संख्या दो प्रकार की होती है। नित्य परमाणुओं में रहने वाली नित्य एवं उनके कार्यभूत द्रव्यणुकादि से लेकर महाभूत पृथिवी आदि तथा वृक्ष घटादि द्रव्यों में रहने वाली अनित्य।

विशेष - (i) एक से परार्ध - पर्यन्त संख्याओं का विवरण इस प्रकार प्राप्त होता है-

एकं दश शतं चैव सहस्रमयुतं तथा। लक्षं च नियुतं चैव कोटिर्बुदमेव च ॥ वृन्दं खर्वोनिखर्वश्च शङ्खः पद्मश्च सागरः। अन्त्यं मध्यं परार्ध च दशवृद्ध्या यथाक्रमम् ॥

(ii) संख्या का जो लक्षण ऊपर दिया गया है वह सर्वथा साधु अति व्याप्ति अव्याप्ति आदि दोषों से रहित है।

(iii) पृथ्वी जल तेजस् तथा वायु के परमाणु नित्य द्रव्य हैं। इसके अतिरिक्त आकाश काल दिक् आत्मा तथा मानस भी नित्य हैं। इस नित्य द्रव्यों में रहने वाली 'एक' संख्या नित्य है क्योंकि इसके आश्रय परमाणु आदि नित्य हैं।

७.

मानव्यवहारासाधारणं कारणं परिमाणम् नवद्रव्यवृत्ति। तच्चतुर्विधम् - अणु महत् दीर्घ ह्रस्वें चेति।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इस गद्यांश में परिमाण के भेद बताये गये हैं।

व्याख्या - मान ( नाप-तौल माप) के व्यवहार के असाधारण कारण को 'परिमाण' कहते हैं। वह नव द्रव्य में रहता है। अणु (छोटा) महत् (बड़ा ) दीर्घ (लम्बा ) हस्व (नाटा) ये परिमाण के चार भेद हैं।

विशेष - छोटा बड़ा इत्यादि व्यवहार का असाधारण कारण दण्ड आदि भी है। उसमें अतिव्याप्ति को हटाने के लिए लक्षण में 'मान' पद दिया गया है।

5.

पृथग्व्यवहारा साधारणकारणं पृथक्त्वम्। सर्वद्रव्यवृत्ति।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इस पंक्ति में पृथक् व्यवहार का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - अमुक वस्तु अमुक से पृथक् है ऐसा व्यवहार है उसके असाधारण कारण को 'पृथक्त्व' कहते हैं। वह सभी द्रव्यों में रहता है।

विशेष - अलग व्यवहार का असाधारण कारण दण्डादि भी है उसमें अतिव्याप्ति दूर करने के लिए लक्षण में 'पृथक' पद दिया गया है। इसका साधारण कारण कालादि भी है उसमें अतिव्याप्ति दूर करने के लिये 'असाधारण' पद दिया गया है।

६.

संयुक्तव्यवहार साधारणों हेतुः संयोगः। सर्वद्रव्यवृत्तिः। सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग - इस अवतरण में 'संयोग' का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - यह वस्तु इससे संयुक्त है इस प्रकार के व्यवहार के असाधारण कारण को संयोग कहते. हैं। यह सभी द्रव्यों में रहता है।

विशेष - पूर्ववत् दण्डादि असाधारण कारण में अतिव्याप्ति दूर करने के लिए 'संयुक्तव्यवहार' पद तथा कालादि साधारण कारण में अति व्याप्ति दूर करने के लिए 'असाधारण पद दिया गया है। संयुक्त व्यवहारत्व' जाति में अतिव्याप्ति दूर करने के लिए 'हेतु' पद दिया गया है।

१०.

संयोगानाशकों गुणो विभागः। सर्वद्रव्यवृत्तिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इस अवतरण में 'विभाग' को निरूपित किया गया है।

व्याख्या - संयोग के नाशक गुण को विभाग कहते हैं। यह सभी द्रव्यों में रहता है। संयोग के नाश में ईश्वरेच्छा भी कारण है अतः उसमें अतिव्याप्ति हटाने के लिए लक्षण में 'असाधारण पद देना चाहिए। कार्य- मात्र के प्रति ईश्वरेच्छा आदि साधारण कारण हैं।

११.

परापरव्यवहारासाधारणकारणे परत्वापरत्वे। पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिनी। ते द्विविधे - दिक्कृते कालकृते च। दूरस्थे दिक् - कृतं परत्वम् समीपस्थे दिक् कृतमपरत्वम्। ज्येष्ठे कालकृतं परत्वम् कनिष्ठे कालकृतमपरत्वम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -इस गद्यांश में परत्व एवं अपरत्व का विवेचन किया गया है।

व्याख्या - पर व्यवहार के असाधारण कारण को 'परत्व' तथा अपर व्यवहार के असाधारण कारण में 'अपरत्व' कहते हैं। ये पृथिवी जल तेजस् और वायु इन चार तथा मन में रहते हैं। ये दोनों दो प्रकार के हैं- दिक्-कृत अर्थात् दिशा (या देश) से उत्पन्न तथा काल-कृत अर्थात् काल से उत्पन्न। दूर स्थित पदार्थ में दिक्-कृत 'परत्व' और समीपस्थ पदार्थ में दिक्-कृत 'अपरत्व' रहता है। इसी तरह ज्येष्ठ में काल-कृत 'परत्व' तथा कनिष्ठ में काल कृत 'अपरत्व' रहता है।

विशेष - प्रयाग से पटना दूर है किन्तु काशी उसकी अपेक्षा प्रयाग के समीप है पर दिक्-कृत अर्थात् देश-कृत परत्व और अपरत्व का उदाहरण है। यह दूरी तथा समीपता का व्यवहार बीच के देश या स्थान के क्रमशः अधिक तथा कम होने के कारण होता है।

१२.

आद्यपतनासमवायिकारणं गुरुत्वम्। पृथिवीजलवृत्तिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इसमें गुरुत्व का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - सर्वप्रथम अर्थात् पहले पतन के असमवायिकारण गुण को 'गुरुत्व' कहते हैं। यह पृथ्वी तथा जल में रहता है। किसी भी वस्तु का पृथिवी पर पतन गुरुत्व के ही कारण होता है। यह गुरुत्व इस पतन में असमवायिकारण है।

विशेष - ' गुरु' अर्थ है भारी। 'गुरत्व' का अर्थ हुआ बोझ या भार। पृथिवी तथा जल में ही गुरुत्व अर्थात् भार होता है। उनके अतिरिक्त तेजस् वायु आकाश काल आदि में गुरुत्व नहीं होता।

१३.

आद्यस्यन्दनासमवायिकारणं द्रवत्वम्। पृथिव्यप्तेजोवृत्ति। तद् द्विविधं सांसिद्धिकं नैमित्तिकं च। सांसिद्धिकं जले। नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोः। पृथिव्यां घृतादावग्नि संयोगजं द्रवत्वम् तेजसि सुवर्णादौ।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में 'द्रवत्व' को निरूपित किया गया है।

व्याख्या -सर्वप्रथम स्यन्दन (प्रवाह) के असमवायिकारण को द्रवत्व कहते हैं। यह पृथिवी जल तथा तेजस् द्रव्यों में रहता है। यह दो प्रकार का होता है सांसिद्विक अर्थात् स्वतः सिद्ध (स्वाभाविक ) रतथा नैमित्तिक अर्थात् कारणजन्य। सांसिद्धिक द्रवत्व जल में तथा नैमित्तिक (कृत्रिम) पृथिवी तथा तेजस् द्रव्यों में रहता है। पृथिवी जैसे धृत इत्यादि में तथा तेजस् जैसे सुवर्ण इत्यादि में अग्नि संयोग से द्रवत्व उत्पन्न होता है।

विशेष - (i) घृत जतु (लाख) इत्यादि पृथ्वी के कार्य होने से उसका द्वर गृहीत हैं। इसी प्रकार सुवर्ण चाँदी इत्यादि खनिज धातुयें तेजस् द्रव्य के कार्य होने से उसके द्वारा गृहीत हैं।

(ii) द्रवत्व के लक्षण का पदकृत्य गुरुत्व के लक्षण के पदकृत्य-जैसा ही है।

१४.

'चूर्णादिपिण्डीभावहेतुर्गणः स्नेहः ' जलमात्रवृत्तिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस पंक्ति में 'स्नेह' का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - चूर्ण है यदि जिसका उस मृतिका इत्यादि के पिण्डत्व अर्थात् पिण्ड होने या बनने के निमित्तकारण-भूत गुण को 'स्नेह' कहते हैं। यह केवल जल में रहता है।

विशेष - लोह इत्यादि के पिण्डभाव में हेतुभूत अग्नि संयोग में पायी जाने वाली अतिव्याप्ति के परिहार के लिये लक्षण में 'चूर्ण' पद दिया गया है। काल इत्यादि में अतिव्याप्ति के परिहार के लिए 'गुण' पद दिया गया है। रूपादि में अतिव्याप्ति के परिहार के लिये 'पिण्डीभाव' पद दिया गया है।

१५.

श्रोत्रग्राह्यो गुणः शब्दः। आकाशमात्रवृत्तिः। स द्विविधः ध्वन्यात्मको वर्णात्मकश्च। तत्र ध्वन्यात्मको भेर्यादौ। वर्णात्मकः संस्कृतभाषादिरूपः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस गद्यांश में 'शब्द' का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - कान से ग्राह्य गुण को 'शब्द' कहते हैं। यह आकाश का विशेष गुण होने से केवल उसी में रहता है। ध्वनि एवं वर्ण रूप से वह दो प्रकार का होता है। ध्वनि रूप शब्द भेरी आदि वाद्यों से उत्पन्न होता है एवं वर्ण-रूप शब्द संस्कृत भाषा आदि के भेद होता है।

विशेष - शब्द की ही तरह शब्दत्व जाति भी श्रोत्रेन्द्रिय से ही ग्रहण की जाती है। अतः उसमें लक्षण की अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए 'गुण' पद दिया गया है। 'शब्दत्व' जाति है गुण नहीं' 'श्रोत' के ग्रहण से श्रोत्रेतर इन्द्रियों से ग्राह्य रूप, रस गन्धादि में अतिव्याप्ति दूर कर दी गयी। वस्तुः तो श्रोत्रदेश में उत्पन्न शब्द ही श्रोत्रगाह्य हैं उससे भिन्न अन्यत्र उत्पन्न शब्द नहीं।

१६.

सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम्। सा द्विविधा, स्मृतिरनुभवश्च। 

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -इस अवतरण में 'बुद्ध' को निरूपित किया गया है।

व्याख्या - समस्त व्यवहारों के कारणभूत गुण को 'बुद्ध' अर्थात् ज्ञान कहते हैं। वह दो प्रकार की होती है स्मृति तथा अनुभव।

विशेष - बुद्धि को ज्ञान या उपलब्धि भी कहते हैं। बुद्धि-उपलब्धि एवं ज्ञान तीनों पर्याय हैं। पदार्थ या वस्तु का प्रकाश ही बुद्धि या ज्ञान है। इसके बिना शब्द का व्यवहार या प्रयोग असम्भव है। इसी से शब्द प्रयोग रूप व्यवहार के हेतु अर्थात् विशिष्ट कारण को 'बुद्धि' कहा जाता है एवं उसके पर्याप्य रूप से 'ज्ञान' को ग्रहण किया है।

१७.

संस्कार मात्र जन्यं ज्ञान स्मृतिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्
प्रसंग - इस पंक्ति में 'स्मृति' पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या - संस्कार मात्र से उत्पन्न ज्ञान को 'स्मृति' कहते हैं।

संस्कार - जन्य तो संस्कार का ध्वंश अर्थात् विनाश भी है अतः उसमें लक्षण की अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए ज्ञान पद दिया गया है। ज्ञान तो 'अनुभव' भी है अतः उसमें अतिव्याप्ति हटाने के लिए संस्कार- जन्य पद दिया गया।

विशेष - स्मृति और अनुभव से युक्त ज्ञान को 'प्रत्यभिज्ञा' कहते हैं। अनुभव और स्मृति दोनों ही ज्ञान हैं किन्तु अनुभव संस्कार का जनक है उससे जन्य नहीं।

१८.

तद्भिन्नं ज्ञानामनुभवः। स द्विविधः यथार्थोऽयथार्थश्च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग- इस पंक्ति में अनुभव को निरूपित किया गया है।
व्याख्या - स्मृति से भिन्न ज्ञान को 'अनुभव' कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है यथार्थ तथा अयथार्थ।

विशेष - स्मृति संस्कार का कार्य है और वह संस्कार स्वयं अनुभव का। संस्कार स्मृति का तो जनक है परन्तु अनुभव का जनक नहीं अपितु जन्य है। इस प्रकार 'अनुभव' ज्ञान का 'स्मृति' ज्ञान से भिन्न होना सुस्पष्ट है।

१९.

तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः। यथा रजते 'इदं रजतम्' इति ज्ञानम्। सैव प्रमोच्यते।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस पंक्ति में यथार्थ का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - 'तत्' पद से ग्राह्य है किसी पदार्थ विशेष में पाया जाने वाला स्वरूपाधायक धर्म। तद्वान् अर्थात् उससे युक्त वह पदार्थ ही हुआ। उसमें उस धर्म या प्रकार ( अर्थात् विशेषण ) वाला अनुभवात्मक ज्ञान 'यथार्थ' हुआ। जैसे रजत (चाँदी) में 'यह रजत है' ऐसा ज्ञान। इसे ही प्रमा कहा जाता है।

विशेष - रजत के विषय में 'इदं रजतम्' ज्ञान यथार्थानुभव है। इस रजत में रहने वाला धर्म राजत्व है। .

२०.

तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः। यथा शुक्तौ 'इदं रजतम्' इति ज्ञानम्। सैवाप्रमेत्युच्यते।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -इन पंक्तियों में तर्कसंग्रहकार ने रजत को निरूपित किया है।

व्याख्या - जिसमें जो नहीं है उसमें उसका अनुभव अयथार्थ अनुभव है। जैसे सीपी में रजत 'यह रजत है' यह ज्ञान। यही अप्रमा है।

 सीपी में रजत की सी चमक है इससे वह रजत सी प्रतीत होती है पर वह रजत नहीं वह तो सीपी है। उसी सीपी में रजत्व का अभाव है।

विशेष - रजत्वाभाव वाली सीपी में रजतत्व 'प्रकारक' यह रजत है ऐसा ज्ञान अयथार्थ अनुभव है। यह अप्रम है।

२१.

यथार्थानुभवश्चतुर्विधः प्रत्यक्षानुमित्युपमितिशब्दभेदात्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इस पंक्ति में तर्कसंग्रहकार ने प्रभा के चार प्रकार बताए हैं।

व्याख्या - प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति तथा शब्द के भेद से यथार्थानुभव अर्थात् प्रमा चार प्रकार की होती है।

विशेष - प्रत्यक्ष ही यथार्थानुभव या प्रमा है यह चार्वाकों का मानना है। अनुमिति भी प्रमा है यह वैशेषिकों एवं बौद्धों की मान्यता है। सांख्य दार्शनिक तथा नैयायिक शब्द को भी प्रमा मानते हैं।

२२.

तत्करणमपि चतुर्विधं प्रत्यक्षानुमानोपमान शब्दभेदात्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -इस अवतरण में तर्कसंग्रहकार ने प्रमा का निरूपण किया है।

व्याख्या - इन (चार प्रकार के ) यथार्थानुभवों या प्रमाओं के कारण भी चार प्रकार के हैं प्रत्यक्ष प्रमा का कारण प्रत्यक्ष अनुमिति प्रमा का कारण अनुमान उपमिति प्रमा का कारण उपमान तथा शब्द प्रमा का कारण शब्द। तर्कसंग्रहकार ने इन्हीं का वर्णन किया।

विशेष - ये चार प्रमा- कारण अर्थात् 'प्रमाण' प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और शब्द हैं।

२३.

असाधारणकारणं करणम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - इस अवतरण में असाधारण कारण को 'करण' कहते हैं।
व्याख्या - असाधारण कारण को 'करण' कहते हैं।

कार्य- मात्र के प्रति साधारण कारण आठ माने गये हैं। ईश्वर, ईश्वर ज्ञान, ईश्वरेच्छा, ईश्वर- कृति, प्रागभाव, काल, द्विक् तथा अदृष्ट इनमें लक्षण की अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए असाधारण पद दिया गया।

२४.

विशेष - 'व्यापारवदसाधारणं कारणं करणम्' यही करण का परिष्कृत अथ च। पूर्ण लक्ष्य है। कार्यनियतपूवृत्ति कारणम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्
प्रसंग -इस पंक्ति में 'कारण' की विवेचना कि गयी है।

व्याख्या - कार्य ( उत्पन्न होने वाले पदार्थ) से निश्चित रूप से पूर्ववर्ती पदार्थ को 'कारण' कहते हैं। कार्य से पूर्व क्षण में जिसकी वर्तमानता नियत या अवश्यम्भावी रूप से हो वही उस कार्य का कारण होगा।

विशेष- 'कार्यात् नियता अवश्यम्भाविनी वृत्तिर्वर्तमानता पस्य तत् ( बहुब्रीहि समास )।

२५.

कार्य प्रागभाव प्रतियोगी।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - तर्कसंग्रहकार ने प्रस्तुत पंक्ति में कार्य का निरूपण किया है।

व्याख्या - कार्य उसे कहते हैं जो अपने प्रागभाव का अर्थात् अपनी उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान अभाव का प्रतियोगी होता है।

विशेष - 'यस्याभावः स प्रतियोगी' अर्थात् जिसका अभाव होता है वही अपने उस अभाव का प्रतियोगी कहा जाता है। 'प्रागभावप्रतियोगी लक्षण करने से पूर्व क्षण में जिसकी वर्तमानता नियत या अवश्यम्भावी रूप से हो वही उस कार्य का कारण होगा।

२६.

कारणं त्रिविधं समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात्। यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत् समवायिकारणम्। यथा तन्तवः पटस्य पटश्च स्वगतंरूपादेः। कार्येण कारणेन वा सहैकस्मिन्नर्थे समवेतं सत कारणमसमवायिकारणम्। यथा तन्तुसंयोगः पटस्य तन्तुरूपं पटरूपस्य। तदुभयभिन्नकारणं निमित्तकारणम्। यथा तुरीवेमादिकं पटस्य

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में कारण का प्रकार बताया गया है।

व्याख्या - कारण तीन प्रकार का होता है- समवायिकारण असमवायिकारण और निमित्तकारण। जिसमें समवेत होकर अर्थात् समवाय सम्बन्ध से रहकर कार्य उत्पन्न होता है, उसे समवायिकारण कहते हैं। जैसे तन्तु अपने में सवेत होकर उत्पन्न हुए पट का समवायिकारण है।

कार्य और कारण के साथ एक पदार्थ में समवाय सम्बन्ध से रहता हुआ कारण असमवायिकारण है। जैसे - तन्तुसंयोग पट का और तन्तुरूप पटरूप का असमवायिकारण है। जो समवायिकारण हो और न ही असमवायिकारण हो तथापि कार्य का कारण अवश्य हो वह निमित्तकारण है।

विशेष - कार्य पंट के साथ एक ही पदार्थ 'तन्तु' में समवाय सम्बन्ध से स्थित कारण 'तन्तु- संयोग' पट का असमवायिकारण है। यह तो सुस्पष्ट है कि जैसे तन्तुओं के बिना पट की उत्पत्ति नहीं होगी उसी प्रकार तन्तुओं के पारस्परिक संयोग के भी बिना पट की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

-यत्समवेतम् पद का विग्रह है यस्मिन् समवेतम्।

२७.

तदेतत् त्रिविधकारणमध्ये. पदसाधारणं कारणं तदेव करणम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस पंक्ति में 'करण' के सम्बन्ध में बताया गया है।

व्याख्या - समवायि असमवायि तथा निमित्त इन तीन कारणों में जो असाधारण अर्थात् विशेष कारण होता है उसी को 'करण' कहते हैं।

विशेष- 'असाधारण' का तात्पर्य है 'व्यापार सम्बन्धाच्छिन्न'। किसी भी कार्य के अनेक कारणों में जो उस कार्य को सिद्ध करने वाले व्यापार या क्रिया से सम्बद्ध होने से उनका सर्वाधिक उपकार होता है वही 'कारण' कहा जाता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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